‘द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च।‘
मुण्डकोपनिशद में ऐसा कहकर दो प्रकार की विद्याओं का वर्णन किया गया है-परा एवं अपरा। अपरा विद्या में वेद तथा वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। ‘पाणिनीय षिक्षा‘ में छहों वेदांगों (षिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिश) पर प्रकाष डालते हुए पाणिनी कहते हैं कि-
षिक्षा कल्पो व्याकरणं, निरुक्तः छन्दसोचमः।
ज्योतिशामनयनं चैव, वेदाड़्गानि शडैव तु।
वेदों को जानने के लिए सर्वप्रथम इन वेदांगों को जानना आवष्यक है। इन वेदांगों में भी ‘ज्योतिशामनयनं चक्षुः‘ ऐसा कहकर ज्योतिश को वेदपुरुश के नेत्र बताया गया है। जब भी हमें यज्ञादि कर्म करने के लिए षुभाषुभ का ज्ञान प्राप्त करना होता है, तो हम ज्योतिश षास्त्र का ही सहारा लेते हैं। जिसे पंचांग के नाम से जाना जाता है।
तिथिर्वारष्च नक्षत्र योगः करणमेव च।
एतेशां यत्र विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते।।
अर्थात् तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण पर विषेश प्रकाष डालने वाली पुस्तक को पंचांग कहा जाता है। इसमें 12 मास, 2 अयन, 2 पक्ष तथा दोनों पक्षों में 15-15 तिथियाँ, 7 वार, 27 नक्षत्र (अभिजित को मिलाकर 28), 27 योग, 11 करण आदि की गणना होती है। यह गणना भी दो सिद्धांतों से की जाती है-सौर सिद्धांत तथा चंद्र सिद्धांत। कुछ लोगों के मन में यह प्रष्न बार-बार आता होगा कि इंटरनेट के युग में पंचांग का क्या उपयोग? सब कुछ तो एक क्लिक में मिल ही जाता है। परंतु षास्त्रों में पंचांग पठन और श्रवण का भी विषेश महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि- तिथियों के श्रवण और पठन से माँ लक्ष्मी की कृपा, वार के श्रवण और पठन से आयु वृद्धि, नक्षत्रों के श्रवण और पठन से पापों का नाष, योग के श्रवण और पठन से प्रियजनों का प्रेम तथा करण के श्रवण और पठन से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। अतः पंचांग सनातन धर्म में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में विषेश महत्त्व रखता है औेर यह प्रत्येक सनातनी के लिए आवष्यक है कि वह पंचाग जैसे धर्म के अंग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना ले।
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