1.यह ब्लॉग साहित्य व समाज के संबंध में व्यावहारिक तथ्यों को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से बनाया गया है | 2. कुछ मनोरंजक व ज्ञानवर्धक बातें भी यहाँ पर हैं | 3. मेरा सदैव प्रयास रहेगा कि मेरे द्वारा लिखे गए किसी भी लेख द्वारा किसी की भी भावनाएं आहत न हों | 4. आप सभी के आशीर्वाद और मार्गदर्शन का सदैव आकांक्षी हूँ |
रविवार, 24 नवंबर 2024
सोमवार, 29 जुलाई 2024
सा विद्या या विमुक्तये-शिक्षा का उद्देश्य-संस्कारयुक्त शिक्षा
‘सा विद्या या विमुक्तये‘ अर्थात् विद्या वह है, जो हमें मुक्ति प्रदान करती है। और मुक्ति किससे? अज्ञान से। और जब मनुष्य की अज्ञानता दूर हो जाती है, तब वह विकास करता है। तब उसका बौद्धिक, सामाजिक, तथा आर्थिक प्रत्येक प्रकार से विकास होता है। शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर अंक बटोरना नहीं है, बल्कि ज्ञान प्राप्त करना है, जिसके आधार पर वह समाज में अपना एक अलग स्थान बना सके। अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सके। और हमारा यही उद्देश्य है कि हम बच्चों को संस्कारयुक्त शिक्षा प्रदान करें, जिससे बच्चों का चहुँमुखी विकास हो और वे पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त कर सकें।
kanya bhroon hatya
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज
में मिल-जुलकर एक परिवार के रूप में रहता है। परिवार स्त्री व पुरुषों का वह समूह
होता है जिसमें बालक, युवा व वृद्ध सभी सम्मिलित होकर अपने-अपने
कर्तव्यों का पालन करते हैं। स्त्री व
पुरुष परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं, जिनपर परिवार का भार बराबर-बराबर मात्रा में बँटा होता है, यदि इस गाड़ी का एक भी पहिया कमजोर या कार्य करना बंद कर दे तो सामाजिक
ढाँचा चरमराकर टूट जाएगा। वर्तमान समय में जैसे-जैसे
हम विकास के मार्ग पर आगे बढ्ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्राकृतिक
संसाधनों का अभाव हमारे जीवन को और अधिक मुश्किल कर रहा है। इन परिस्थितियों में
लोग पहले बालक के रूप में लड़के को वरीयता देते हैं। तकनीक का प्रयोग कर लिंग परीक्षण
द्वारा लडकी होने पर गर्भ में ही उसे मार डालते हैं। कन्या भ्रूण हत्या आमतौर पर
मानवता और विशेष रूप से समूची स्त्री जाति के विरुद्ध सबसे जघन्य अपराध है। बेटे
की इच्छा परिवार नियोजन के
छोटे परिवार की संकल्पना के साथ जुडती है और दहेज़ की प्रथा ने ऐसी स्थिति को जन्म
दिया है जहाँ बेटी का जन्म किसी भी कीमत पर रोका जाता है। इसलिए समाज के अगुआ लोग
माँ के गर्भ में ही कन्या की हत्या करने का सबसे गंभीर अपराध करते हैं। भारतीय
संविधान का अनुच्छेद 21 “जीवन के अधिकार” की घोषणा करता है। अनुच्छेद 51A (e) महिलाओं के प्रति अपमानजनक प्रथाओं के त्याग की व्यवस्था भी करता है। उपरोक्त
दोनों घोषणाओं के आलोक में भारतीय संसद ने लिंग तय करने वाली तकनीक के दुरुपयोग और
इस्तेमाल से कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीक
(दुरुपयोग का नियमन और बचाव ) अधिनियम, 1994 भी पारित किया। परंतु केवल कानून बना देने से
सामाजिक बुराई का अंत नहीं हो सकता। महिलाओं के प्रति भेदभाव आम बात है और ख़ास तौर
पर कन्या के प्रति उपेक्षा हमारे समाज में गहरे जड़ों तक धंसी है। तमाम कानूनों के
बावजूद समाज में पुरुषों की श्रेष्ठता की गलत अवधारणा समाज के लिए खतरनाक है। लोगों का मानना
है कि लड़के परिवार के वंश को जारी रखते हैं जबकि वो ये बेहद आसान सी बात नहीं
समझते कि दुनिया में लड़कियाँ ही शिशु को जन्म दे सकती हैं, लड़के नहीं। भारतीय
समाज में कन्या भ्रूण हत्या के निम्न कारण हैं-
·
कन्या भ्रूण हत्या की मुख्य वजह बालिका शिशु पर बालक शिशु की प्राथमिकता है क्योंकि
पुत्र आय का मुख्य स्त्रोत होता है जबकि लड़कियां केवल उपभोक्ता के रुप में होती हैं।
समाज में ये गलतफहमी है कि लड़के अपने अभिवावक की सेवा करते हैं जबकि लड़कियाँ पराया
धन होती है।
·
दहेज़ व्यवस्था की पुरानी प्रथा भारत में अभिवावकों के सामने एक बड़ी चुनौती है
जो लड़कियां पैदा होने से बचने का मुख्य कारण है।
- अभिवावक
मानते हैं कि पुत्र समाज में उनके नाम को आगे बढ़ायेंगे जबकि लड़कियां केवल
घर संभालने के लिये होती हैं।
- गैर-कानूनी
लिंग परीक्षण और बालिका शिशु की समाप्ति के लिये भारत में दूसरा बड़ा कारण
गर्भपात की कानूनी मान्यता है।
- तकनीकी
उन्नति ने भी कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा दिया है।
कन्या भ्रूण हत्या ने बुराइयों की एक श्रृंखला को जन्म दिया
है। पिछले तीन दशकों में बड़े पैमाने पर कन्या भ्रूण हत्या के कुप्रभाव गिरते
लिंगानुपात और विवाह योग्य लड़कों के लिए वधुओं की कमी के रूप में सामने आये हैं।
इसके अलावा जनसंख्या विज्ञानी आगाह करते हैं कि अगले बीस सालों में चूँकि विवाह
योग्य महिलाओं की संख्या में कमी आएगी इसलिए पुरुष कम उम्र की महिलाओं से विवाह
करेंगे जिससे जन्मदर में वृद्दि के कारण जनसंख्या वृद्धि के दर भी ऊँची हो जाएगी।
लड़कियों को अगवा करना भी इसी से जुडी एक समस्या है। अविवाहित पुरुषों की अधिक
तादाद वाले समाज के अपने खतरे हैं। यौनकर्मी के तौर पर अधिक महिलाओं का शोषण होने
की सम्भावना है। यौन शोषण और बलात्कार इसके स्वाभाविक परिणाम हैं। पिछले कुछ सालों
से यौन अपराधों का तेजी से बढता ग्राफ असमान छू रहा है जो लिंगानुपात के परिणामों
से जुड़ा है।
लोगों का मानना है कि लड़के परिवार के वंश को जारी रखते हैं
जबकि वो ये बेहद आसान सी बात नहीं समझते कि दुनिया में लड़कियाँ ही शिशु को जन्म
दे सकती हैं, लड़के नहीं।
महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव समानता के
सिद्धांत और मानवीय गरिमा के आदर का घोर उल्लंघन है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि
वह कानूनों में बदलाव या मौजूदा कानूनों, नियमों, परिपाटियों और प्रथाओं में
से जेंडर आधारित भेदभाव को ख़त्म करने के लिए उचित कदम उठाए। साथ ही लोगों को
जागरूक करने का बीडा भी सरकार के साथ-साथ समाज के अग्रणी लोगों को उठाना होगा ताकि
स्त्रियों को भी समाज में समान अधिकार मिल सकें।
रविवार, 28 जुलाई 2024
विकास: कंक्रीट का जंगल
विकास: कांक्रीट का जंगल
“परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है।“ और हम जिस समाज में रहते है, वह निरंतर विकास और प्रगति की ओर बढ़ रहा है। कांक्रीट
के जंगल, यानी शहरीकरण और आधुनिक बुनियादी ढाँचे का विकास,
इस प्रगति का ही प्रतीक है।
मैं आपका ध्यान इस ओर विशेष रूप से आकर्षित
करना चाहती हूँ कि वर्तमान समय में कांक्रीट के जंगल ही विकास का आधार है। शहरो में
इमारतें, सड़के, पुल और अन्य बुनियादी ढाँचे बनाकर हम रोजगार के अनेक रास्ते खोलते हैं। यह न केवल निर्माण क्षेत्र में नौकरियाँ प्रदान
करते हैं, बल्कि व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी और अन्य
सेवाओं के लिए भी संभावनाओं के विभिन्न द्वार खोलते हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज की संरचना एक-दूसरे के सहयोग पर टिकी होती है। तो
शहरीकरण इस सामाजिक परिभाषा को पूर्णतया परिभाषित करता है। आज
शहरों में लोग एक-दूसरे के साथ अपने संसाधनों को
प्रेम से बांटते हैं। साथ मिल नई तकनीक खोजकर अपना व दूसरो का जीवन आसान बनाते
हैं।
ध्यान दीजिएगा, ये विकास के मार्ग
ही आधुनिक जीवन की सुविधाएँ प्रदान करते हैं। शहरी क्षेत्रों में हमे शिक्षा,
स्वास्थ्य, मनोरंजन और अन्य मूलभूत सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध होती हैं।
बड़े शहरों में उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान, सुपर स्पेशियलिटि
अस्पताल और अत्याधुनिक परिवहन सुविधाएँ होती हैं जो
ग्रामीण क्षेत्रों में दुर्लभ हैं।
इस बात से तो आप अनभिज्ञ नहीं होगे कि आज ये कंक्रीट के जंगल
ही तकनीकी और वैज्ञानिक उन्नति को बढ़ावा देते है। शहरों में बड़े- बड़े अनुसंधान
केंद्र, तकनीकी पार्क और उद्योग स्थापित होते हैं, जो नवाचार और
अनुसंधान को बढ़ावा देते हैं। यह वैज्ञानिक उन्नति हमारी जीवन शैली को बेहतर बनाती
है और हमें वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बनाए रखती है।
हमें यह भी समझना होगा कि कंक्रीट के जंगल
सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के भी केंद्र होते हैं। शहरों में विभिन्न संस्कृतियों
और समुदायों के लोग एकसाथ रहते हैं जिससे सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा
मिलता है। यह विविधता हमें एक समृध्द और परिष्कृत समाज की ओर ले जाती है।
कांक्रीट के जंगल हमारे
देश और समाज के लिए अनिवार्य हैं। ये आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के प्रमुख साधन है, जो हमें एक समृध्द्ध और विकसित भविष्य की ओर ले
जाते हैं।
विकास: 'कंकरीट के जंगल’ VIKAAS: CONCRETE KE JANGAL (LAABH)
‘विकास: 'कंकरीट के जंगल’
प्रकृति हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। सदियों से अनेक विद्वान इसकी महिमा
का गुणगान करते आए हैं। परंतु मेरी मित्र ने पुरजोर 'कंकरीट के जंगल को सभ्यता एवं विकास का प्रतीक बताया है।
निर्णायक मंडल, कृपया ध्यान दीजिएगा। यह विकास आखिर किस शर्त
पर? शुद्ध हवा के स्थान पर दूषित हवा पाकर, चिड़ियों की चहचहाहट के स्थान पर कानफोडू ट्रैफिक
सुनकर, सूर्योदय व सूर्यास्त देखने के स्थान पर टीवी
देखकर? आखिर कहाँ है विकास?
महोदया, मेरी मित्र ने शहरीकरण को ही विकास का दूसरा
नाम दिया है तो मैं उनसे कहना चाहूँगी कि इस भारत वर्ष के गौरवशाली इतिहास पर भी नज़र
डालें, क्या इस शहरीकरण से पहले मेरा भारत सोने की
चिड़िया और विश्वगुरु नहीं था? क्या सभ्यताओं में सबसे विकसित सभ्यता हमारी
नहीं थी? क्या शिक्षा और तकनीकी का ज्ञान प्राप्त करने दूर
देशों से लोग भारत नहीं आते थे?
मेरी मित्र शहरी सामाजिक संरचना को उत्तम बता रहीं है? मैं पूछना चाहती हूँ कि वे किस शहरी समाज को
परोपकारी और मिलनसार बता रहीं हैं? उसे जिसमें लोग
अपने पड़ौसी को जानते तक नहीं? उसे जिसमें लोग
छोटे-छोटे मकानों में एकाकीपन, तनाव व अवसाद जैसी
विभिन्न मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं।
आज हमारे पास चिकित्सा सुविधा तो अच्छी है पर क्या हमारी जीवन रेखा छोटी नहीं
हो गयी है। आज शिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान तो हमारे पास है पर क्या मानवीय मूल्यो का
ह्रास नहीं हुआ है? विज्ञान तो आगे बढ़ गया पर आज मानवता कितनी पीछे छूट चुकी है,
यह किसी से छिपा नहीं है।
मेरी मित्र अपनेपन को छोड़कर समाज से अलग- थलग रहकर किस प्रकार का आनंद इस कंकरीट
के जंगल में उठा रही है? कंकरीट के जंगल की
गगन छूती बड़ी- बड़ी इमारते तथा फ्लेटों में जीवन बिताकर किस प्रकार का गर्व का अनुभव
कर रही हैं? यह विचारणीय विषय है।
हरे-भरे खेत, लहलहाती फसलें,
रंगबिरंगे फूलों की सुंदर पोशाक में सजी धरती मनमोहक व आकर्षक लगती है। लहराती नदियाँ, मधुर संगीत सुनाते झरने, शीतल बहती हवा हमारे जीवन में उर्जा का संचार करते है। प्रकृति
का यह रूप हमारे जीवन के तनाव को दूर कर जीने की इच्छा को बढ़ाता है।
क्या इन्हें रंग-बिरंगी तितलिया, फूलों पर मँडराते भौरे, पेडो पर
कूकती कोयल, हरि-भरी घास पर नाचते मोरों को देखने का सौभाग्य
प्राप्त होगा? क्या मेरी प्रतिपक्षी ने सुना नहीं कि कई बार लिफ्ट
में फंसे बच्चे, लापरवाही से लगी आग,
समाज से कटे परिवार किस प्रकार तनाव ग्रस्त हो जाते
हैं।
अतीत में हमारे पूर्वजों ने प्रकृति
की गोद में रहकर ही साहित्य, संस्कृति, कृषि, कला, वास्तुकला, विज्ञान आदि के क्षेत्रों में नया इतिहास नहीं लिखा।
धन्यवाद