एक साहित्यिक का दुःख
‘साहित्य समाज का दर्पण है‘ ऐसा मंैने अनेक स्थानों पर पढ़ा तथा अनेकानेक मनीषियों के श्रीमुख से श्रवण भी किया। पर साहित्य क्या है? और उसका उद्देश्य क्या है? यदि हम साहित्य क्या है? इस प्रश्न पर विचार करें तो हिंदी साहित्य के विद्वानों ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत के विद्वानों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को परिभाषित करते हुए जनता की चित्तवृत्ति के संचित प्रतिबिंब को साहित्य माना तो बालकृष्ण भट्ट ने जनसमूह के हृदय का विकास। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ज्ञान राशि के संचित कोश को ही साहित्य माना। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद साहित्य को मनोरंजन की वस्तु मात्र नहीं मानते। वह लिखते हैं-‘‘अब साहित्य केवल मन बहलाव की चीज़ नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता अपितु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हे हल करता है.......।‘‘ यदि हम पाश्चात्य विद्वानों के ब्रह्म वाक्यों की तरफ भी दृष्टिपात करें तो श्रीमान हडसन ने भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति को साहित्य माना। गेटे ने कहा कि- साहित्य का पतन राष्ट्र के पतन का द्योतक है। पतन की ओर वे परस्पर साथ देते हैं।
मेरा उद्देश्य यहाँ पर साहित्य के पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों का पुनस्र्मरण कराना नहीं है। यह सब लेखा-जोखा तो आपको भलीभाँति स्मरण है। मेरा उद्देश्य तो मात्र इतना है कि आज साहित्य किस दिशा में जा रहा है? आखिर किन उद्देश्यों को लेकर साहित्य का सृजन किया जा रहा है? लेखन का मुख्य उद्देश्य क्या है? क्या हमारे साहित्यकारों को अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा कराए गए मार्गदर्शन का भान है या उसे वे विस्मृत कर चुके हैं? आज जो साहित्य के ठेकेदार बने बैठे हैं क्या उन्हें अपने कत्र्तव्यो व जिम्मेदारियों का भान है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आत्ममुग्धता में स्वकत्र्तव्यों का विगलन हो गया हो? कहीें उन्होंने भी तो भाई-भतीजावाद या परिवारवाद का चश्मा तो नहीं लगा लिया है? कहीं वे हिंदी का वट वृक्ष तो नहीं बन गए हैं? जो अपने आसपास किसी दूसरे वृक्ष को उगने ही न दे। आज मैं जब लोगों को कहते सुनता हूँ कि इंटरनेट के चलते पुस्तकों के पाठक कम हो गए हैं तो स्वयं पर ही हँसी आती है कि मैं ऐसे लोगों के मध्य पनपने का प्रयास कर रहा हूँ जो स्वयं परजीवी हैं, मैं ऐसे लोगों से संसर्ग कर रहा हूँ जो स्वयं दूसरों की तरफ अपेक्षा की नज़रों से देख रहे हैं। आज साहित्यकारों के नाम पर बरसाती कुकुरमुत्तों की फौज़ उग आई हैं, जिन्हें न तो साहित्य से ही कुछ लेना-देना है और न समाज से ही। उन्हें चिंता है तो बस अपने सुखों की। उन्होंने जो पन्ने काले किए हैं, बस वे किसी भी तरह बिक जाएँ और ये रातोंरात सड़क से उठकर सूर, तुलसी और कबीर की पंक्ति में खड़े होकर नाम और दाम दोनो कमा लें। उन्हें उन काले पन्नों की रायल्टी मिलने लगे ताकि वे भी उन अमीर भांडों की तरह सुरा-सुंदरी का आस्वादन कर सकें। हँसी तो तब आती है जब ये शेखचिल्ली बने किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने के दिवास्वप्न देखते हैं। और तो और अपने विद्यार्थी काल में मैं कुछ ऐसे स्थानीय साहित्यकारों के दर्शनों से भी अभिभूत हो चुका हूँ जो स्वयं के साथ हुए उपेक्षा के व्यवहार पर ही अनेक गोष्ठियों को शब्दरंजित कर चुके हैं तथा यह भी दावा करते हैं कि जितनी मात्रा में वे लेखन कर चुके हैं, उस पर ही कई छात्र पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर सकते हंै। नेम और फेम पाने के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपने अंतरंग संबंधों तथा खुद पर हुए सामाजिक व पारिवारिक अत्याचारों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन चैराहे पर खड़े होकर लाउडस्पीकर के साथ कर सकते हैं। ऐसा करने में उन्हें ज़रा भी शर्म या हिचकिचाहट नहीं होगी। कुछ भी हो जाए....... कुछ भी करना पड़े....... बस येन केन प्रकारेण नेम और फेम की प्राप्ति होनी चाहिए। पर मैं एक सहृदय सामाजिक के नाते अपने उन ‘‘गंगाजल निर्मल यमुनाजल शीतल पावन पवित्र शुभ चरित्र षट्कर्म सावधान‘‘ कुशाग्र बुद्धि अग्रजों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे अपने आसपास दृष्टिपात करें, समाज में क्या चल रहा है उसे देखें व विचार कर साहित्य के माध्यम से समाज को एक सही दिशा देने का प्रयास करें। मात्र क्रांति-क्रांति चिल्लाने से क्रांति नहीं होगी। उसके लिए हमें मिलकर प्रयास करने हांेगे। साहित्य में वह शक्ति है, जिसके बल पर समाज को नियंत्रित कर सही मार्ग पर चलाया जा सकता है। वशर्ते पहले साहित्यकार को यह समझना होगा कि समाज की आवश्यकताएँ क्या हैं? उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं? और यदि साहित्यकार यह भी नहीं समझा सकता तो उसे कोई हक नहीं कि वह पन्ने पर पन्ने काले कर एक सामाजिक के शुद्ध व भोले मन को कुत्सित करे। रूस में जब बुद्धिजीवियों ने अपने समाज को, उसकी आवश्यकताओं को, उसकी अपेक्षाओं को समझा और समझकर उसके अनुरूप जिस साहित्य का सृजन किया उसे पूरे विश्व ने एकमत हो स्वीकार किया और रूस विश्व पटल पर छा गया। आज हमारे समाज को आवश्यकता है ऐसे साहित्य की जो किसी एक भू-भाग, धर्म या जाति विशेष का सत्य न होकर सार्वभौमिक हो। जिससे संपूर्ण मानव जाति लाभान्वित हो। जिसे पढ़कर एक मानव दूसरे मानव से घृणा या वैर भाव छोड़कर प्रेम करे। लागों के हृदयों की कालिमा धुल जाए। लोग एक-दूसरे के धर्म-जाति को हृदय से सम्मान दें। प्रत्येक मानव, मानव मात्र से प्रेम करे। कोई वंचित न हो, कोई पराश्रित न हो, कोई अछूत न हो। ऐसे ही साहित्य का सृजन हो, यही समाज के लिए श्रेष्ठतम व सामाजिक के लिए श्रेयस्कर होगा। जब भी किसी ने लोभ, मोह या क्रोधवश कत्र्तव्यों को निश्चित किया है, वह हानिकारक हुआ है। अतः हम साहित्यिकों का प्रमुख कत्र्तव्य है कि समाज को जाग्रत कर उसे सही दिशा प्रदान करें। हमें स्वहित को बिसराकर परहित को ध्यान में रखकर कार्य करना होगा, तभी हम इस राष्ट्र को सही दिशा में विकसित होता देख सकेंगे।
मेरा अपने सभी अग्रज साहित्यकारों से निवेदन है कि वे अपने समय को यथार्थ के चश्मे से देखें और ऐसे साहित्य की रचना करें जो इस दिशाहीन समाज को एक दिशा प्रदान कर सके। मैं साहित्य के ठेकेदारों से भी करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वे आत्ममुग्धता का त्याग करें तथा सही-गलत, अच्छे-बुरे में भेद करते हुए निष्पक्ष भाव से सभी को समान अवसर प्रदान करें। स्वहितों को त्यागकर परहितों को सर्वोपरि रखें। साहित्य को समाज का दर्पण रहने दें। साहित्य से ही हमारी पहचान है, हमारा अस्तित्व है, यदि साहित्य ही रसातल को चला जाएगा तो हमारा नामलेवा भी कोई नहीं रहेगा। और अंत में क्षमा प्रार्थना के साथ लेखनी विराम-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमे उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।
मनोज कुमार शर्मा
Mobile- 8393816464
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